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Thursday, October 30, 2008

कमजोर होती हिंदू शक्ति

ublished on :-Dainik Jagran, Aug 19, 2008
नेपाल में सत्ता परिवर्तन किसी देश में राजतंत्र से लोकतंत्र में हुआ रूपांतरण मात्र नहीं है। प्रचंड का प्रधानमंत्री बनना संपूर्ण दक्षिण एशिया क्षेत्र, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप भी कहा जाता है, में हिंदुओं के लगातार कमजोर होते जाने का प्रतीक है। प्रचंड जिस माओवादी संगठन के प्रमुख है उसकी सैन्य गुरिल्ला इकाई को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी कहा जाता है। प्रचंड चीन की सेना की तर्ज पर बनी इस अराजक और आतंकी गुरिल्ला फौज के कमांडर इन-चीफ रहे है। नेपाल में 12 साल से चल रहे माओवादी आतंकवाद में 15 हजार से अधिक नेपाली नागरिक मारे गए। माओवादी क्रांति के दौरान केवल मंदिरों, संस्कृत पाठशालाओं, हिंदू प्रतीकों और परंपराओं को निशाना बनाया गया। इस आड़ में नेपाल में तीव्रता से ईसाई मतांतरण बढ़ा और भारत विरोधी तत्वों की गतिविधियां भी तेज हुईं। यह विडंबना ही है कि जन्म से मृत्यु तक की अपनी प्रार्थनाओं में जो हिंदू सर्व मंगल और कल्याण की कामना करता है और जिसके स्वभाव और व्यवहार का अनिवार्य हिस्सा सर्वपंथ समभाव है उसी हिंदू को नेपाल में अपनी पहचान के प्रति हीनभाव से ग्रस्त करने का प्रयास हुआ यानी हिंदूपन का आग्रह आधुनिकता एवं मानवता विरोधी बताया गया, जबकि ईसाई और इस्लाम समाज जितना अपनी पहचान और आस्था के कर्मकांड का आग्रही हुआ उतना ही उसे पंथनिरपेक्ष और सम्मान का पात्र माना गया। नेपाल में राजशाही के अंत का किसी को दु:ख नहीं हुआ। राजशाही ही वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। जो नेपाल पशुपतिनाथ से पहचाना जाता है वह अब बिशप हाउस को महत्व दे रहा है। यह कम्युनिस्ट पंथनिरपेक्षता की विशिष्टता है। देखा जाए तो दुनिया के अनेक देशों में पंथ-आधारित राजतंत्र एवं लोकतंत्र का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। इनमें चर्च पर निष्ठा रखने वाला ब्रिटेन, बेल्जियम व बौद्ध जापान, म्यांमार आदि हैं, जबकि माओवादियों ने नेपाल की हिंदू राष्ट्र की पहचान समाप्त करने पर इस तरह जोर दिया मानो हिंदू निष्ठा और लोकतंत्र में विरोधाभास हो।

हिंदुओं के प्रभुत्व और शक्ति मे क्षरण पूरे दक्षिण एशिया में दिखाई देता है। जिस पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश के रूप में नवोदय हुआ वहां विभाजन के समय हिंदुओं की संख्या तीस प्रतिशत थी। यह अब घट कर दस प्रतिशत रह गई है। भारतीय जवानों और जनता के रक्त व धन से बांग्लादेश का जन्म हुआ, लेकिन 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा तोड़े गए ढाका के प्रसिद्ध रमना काली मंदिर का शेख मुजीब ने भी नव-निर्माण नहीं होने दिया। उस प्रसिद्ध मंदिर के पुनरुद्धार का हिंदू आंदोलन अभी तक चल रहा है। बांग्लादेश में हिंदू स्त्रियों व शेष समाज पर जुल्म की दास्तान लिखने वाली तस्लीमा नसरीन को हिंदू बहुल भारत में ही तिरस्कृत होकर भटकना पड़ रहा है। आज तक बांग्लादेश में कोई भी हिंदू कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया। मैं छह बार पाकिस्तान गया हूं। वहां बचे-खुचे मंदिरों के हिंदू पुजारी अ‌र्द्ध चंद्राकार टोपी पहनते है ताकि बाहर हिंदू के रूप में पहचाने न जाएं। हिंदू स्त्रियां बिंदी तक नहीं लगातीं। होली-दीवाली जैसे पर्व बंद अहातों में मनाए जाते हैं। हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन के अनुसार 1947 में पाकिस्तान में 24 प्रतिशत हिंदू थे, जो घटकर 1.6 प्रतिशत रह गए है। श्रीलंका में हिंदुओं की संख्या 15 प्रतिशत है। एक समय था जब बामियान से बोरबोडूर तक हिंदू संस्कृति की बहुलतावादी गौरव पताका फहराया करती थी। विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर अंकोरवाट कंबोडिया में है। गांधार से लेकर पूर्वी एशिया के लाओ देश तक का क्षेत्र स्वर्ण भूमि या हिंदेशिया कहलाता था। आज भी बैंकाक हवाई अड्डे का नाम संस्कृत में है जिसका अर्थ स्वर्णभूमि है। यहां प्रवेश करते ही आकर्षक 'सागर मंथन' की शिल्पाकृति के दर्शन होते है, लेकिन भारत में पंथनिरपेक्ष विचारधारा के हिंदू द्वेषी चरित्र के कारण पड़ोसी देशों में हिंदुओं की रक्षा या हिंदू समाज के प्रति समभाव का विचार पनप नहीं सका।

म्यांमार अपनी हिंदू बौद्ध परंपरा के कारण हिंदू-द्वेषी नहीं बना, परंतु जहां कट्टरवादी वहाबी इस्लाम और कम्युनिज्म हावी हुए वहां हिंदू-हनन का चक्र अबाधित चला। इसके लिए स्वयं आत्मविस्मृत, वोट बैंक केंद्रित हिंदू नेता ही जिम्मेदार है। उनकी राजनीति का मूलाधार है-'वोट बढ़े, भले ही हिंदू घटें'। उनके लिए हिंदू होने का अर्थ है व्यक्तिगत लाभ के लिए अंगूठियां पहनना, हवन, यज्ञ कराकर टिकट मिलने या मंत्रिपद पाने का मार्ग निष्कंटक बनाना यानी भगवान से अपने फायदे के लिए कुछ लेना और बदले में कोई मंदिर या अन्य धर्मस्थल बनवा देना। इस लेन-देन में समाज और राष्ट्र गायब ही रहता है। ये वही हिंदू नेता है जो अंग्रेजों के चाटुकार राय बहादुर या दारोगा बने, पर साथ ही पूजा-पाठ भी जारी रखा। स्वामी दयानंद, विवेकानंद और डा. हेडगेवार जैसे समाज सुधारकों ने इसी मानसिकता पर प्रहार करते हुए समाज के संगठन एवं प्रबोधन का काम किया था, पर वह कार्य कितना अधूरा है, यह जम्मू में तिरंगे के लिए चल रहे संघर्ष से ही जाहिर है। जब भारत में ही लाखों की संख्या में हिंदुओं को शरणार्थी बना दिया जाए और जब अलगाववादी, भारतद्रोही लाल चौक पर तिरंगा सहन न कर सकें और न ही जमीन का एक टुकड़ा हिंदू तीर्थयात्रियों को देने दें तब यह आशा कैसे की जा सकती है कि भारत पड़ोसी देशों में हिंदुओं की रक्षा कर पाएगा? यह स्थिति हिंदू समाज में संगठन एवं धर्म के लिए एकजुटता की कमी भी दिखाती है। दुनिया के धन-कुबेरों में हिंदू है, विश्व-प्रवासी संत और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुख पदों पर अनेक हिंदू है, पर कभी भी, कहीं भी वे इस भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात दक्षिण एशिया में हिंदुओं के जनसांख्यिक एवं राजनीतिक क्षरण पर चिंतित नहीं दिखते। नेपाल ही वह अंतिम कोना था जहां हिंदुओं को अपनी पहचान के जगमगाते दीपक का आभास होता था। वहां लोकतंत्र का अभिनंदन करते हुए भी माओवादी आग्रह हिंदू समाज के लिए आश्वस्ति नहीं जगाते।
[नेपाल में प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के साथ हिंदू पहचान को और अधिक कमजोर होता देख रहे हैं तरुण विजय]

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